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Tuesday, 15 March 2022

आर्यों के विजय होने के कारण

-:आर्यों के विजय होने के कारण:- 



आर्यों के विजय होने के निम्नलिखित कारण रहा:- 

                1) घोड़े चालित रथ, 

                2) काँसे के बने हथियार व 

                3) उपकरण, कवच 


1) घोड़े चालित रथ:- आर्य घोड़े चालित रथ का उपयोग करते थे जिनसे उन्हें गति मिलती थी और कम से कम समय में अधिक से अधिक दुरी तय कर पाते थे। 


2) हथियार व उपकरण:-  आर्य धनुष बाण का उपयोग करते थे। 1) ताम्बे से बना सिरा, 2) सींग से बना सिराताम्बे से बना सिरा  तथा बरछी भला फरसा तलवार आदि। 


3) कवच:- आर्य युद्ध के समय स्वयं की सुरक्षा के लिए कवच धारण करते थे, तथा विशिष्ट प्रकार के दुर्ग का प्रयोग करते थे, जिसे पुर कहा जाता था। 



Tuesday, 30 November 2021

भारत पर अरबों का आक्रमण और कारण

  

भारत पर अरबों का आक्रमण 

632 ई. में हजरत मोहम्मद की मृत्यु के उपरांत, 6 वर्षो के अंदर ही उनके उत्तराधिकारियों ने सीरिया, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका, स्पेन और ईरान को जीत लिया। तत्कालीन समय में खलीफा राज्य फ्रांस से लेकर काबुल नदी तक फैल चुका था। अपने इन विजयों से उत्साहित होकर अरबों ने भारत की संपन्नता देख भारत पर आक्रमण किया। अरबियों ने जल-थल दोनों मार्गो से भारत (सिंध) पर आक्रमण किए किंतु 712 उन्हें कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। 



सिंध पर आक्रमण के कारण :-

सिंध पर अरबों के आक्रमण के विषय में विद्वानों के मत हैं, कि :-

  • इराक का शासक अल हज्जाज भारत की संपन्नता के कारण उसे जीत कर स्वयं संपन्न बनना चाह रहा था।  
  • अरबों के कुछ जहाजों को सिंध के देवल बन्दरगाह पर समुद्री लुटेरों ने लूट लिया था, जिसके कारण खलीफा ने सिंध के राजा दाहिर से जुर्माने की मांग की किंतु दाहिर ने असमर्थता जताते हुए कहा कि उनका डाकुओं पर कोई नियंत्रण नहीं है। 

मोहम्मद बिन कासिम का आक्रमण :- 

उक्त कारणों से खलीफा ने अपने भतीजे व दामाद मोहम्मद बिन कासिम को 712 ई. में सिंध पर आक्रमण के लिए भेजा। 17 वर्ष की आयु में कासिम ने सिंध पर सफल अभियान किया। 


मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण (711 से 715) :-

देवल विजय:- एक बड़ी सेना लेकर मोहम्मद बिन कासिम 711 में देवल पर आक्रमण कर दिया। दाहिर ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए देवल की रक्षा नहीं की और पश्चिमी किनारों को छोड़कर पूर्वी किनारों के बचाव में लग गया। दाहिर के भतीजे ने राजपूतों से मिलकर जिले की रक्षा का प्रयास किया किंतु असफल रहा। 

नेऊन विजय:- नेऊन पाकिस्तान में वर्तमान हैदराबाद के दक्षिण में स्थित इराक के समीप था। दाहिर ने नेऊन की रक्षा का दायित्व एक पुजारी को सौंप कर अपने बेटे जय सिंह को ब्राम्हणाबाद बुला लिया। नेऊन में बौद्धों की संख्या अधिक थी। उन्होंने मोहम्मद बिन कासिम का स्वागत किया। इस प्रकार बिना युद्ध किए ही मीर कासिम का नेऊन के दुर्ग पर अधिकार हो गया। 


सेहवान विजय:- इस समय सेहवान का शासक माझरा था। इसने बिना युद्ध के ही नगर छोड़ दिया और बिना किसी कठिनाई के सेहवान पर मोहम्मद बिन कासिम का अधिकार हो गया। 


सीसम के जाटों पर विजय:- मोहम्मद बिन कासिम सीसम के जाटों पर अपना अगला आक्रमण किया। माझर यहीं पर मारा गया। जाटों ने मोहम्मद बिन कासिम की अधीनता स्वीकार कर दी। 

राओर विजय:- राओर में दाहिर और मोहम्मद बिन कासिम के बीच घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में दाहिर मारा गया। दाहिर के बेटे जयसिंह ने राओर दुर्ग की रक्षा का दायित्व अपने विधवा मां पर छोड़कर ब्राह्मणबाद चला गया। दुर्गे की रक्षा करने में अपने आप को असफल पाकर दाहिर की विधवा पत्नी ने आत्मदाह कर लिया। 


ब्राह्मणवाद पर अधिकार:- ब्राह्मणवाद की सुरक्षा का दायित्व दाहिर के पुत्र जयसिंह के ऊपर था। उसने कासिम के आक्रमण का बहादुरी के साथ सामना किया। किंतु नगर के लोगों के विश्वासघात के कारण वह पराजित हो गया और ब्राह्मणवाद पर कासिम का अधिकार हो गया। कासिम ने यहां का कोष तथा दाहिर की दूसरी विधवा पत्नी के साथ उसकी दो पुत्रियों सूर्यदेवी तथा परमल देवी को अपने कब्जे में कर लिया। 

आलोर विजय:- ब्राह्मणवाद पर अधिकार के बाद कासिम आलोर पहुंचा। प्रारंभ में अलोर में निवासियों ने कासिम का सामना किया। किंतु अंत में आत्मसमर्पण कर दिया। 


मुल्तान विजय:- मुल्तान में आंतरिक कलह के कारण विश्वासघातियों ने कासिम की सहायता की। उन्होंने नगर के जल स्त्रोत की जानकारी कासिम को दे दी जहां से दुर्ग निवासियों को जल की आपूर्ति की जाती है। इससे दुर्ग के सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस नगर में मीर कासिम को इतना धन मिला कि उसने इस स्वर्णनगर नाम दिया। 


मोहम्मद बिन कासिम की वापसी:- 

मोहम्मद बिन कासिम ने देवल,नेऊन, सेहवान, सीसम, राओर, ब्राह्मणवाद, आलोर, मुल्तान आदि पर विजय के बाद भारत के अंतरिम भागों को जीतने के लिए सेनाएं भेजी। परंतु नागभट्ट (प्रतिहार), पुलकेसीन एवं यशोवर्मन (चालुक्य) ने इन्हे वापस खदेड़ दिया। इस प्रकार अरबों का शासन भारत के सिंध प्रांत तक सिमट कर रह गया। 




सल्तनत कालीन राजत्व का सिद्धान्त

 

सल्तनत कालीन राजत्व का सिद्धान्त

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  • तुर्क-अफगान शासकों द्वारा दिल्ली सल्तनत को इस्लामी राज्य की संज्ञा दी गई है। वे अपने साथ शासन की धार्मिक व्यवस्था भी लाये थे। इस शासन व्यवस्था में राजा को धार्मिक नेता माना जाता था। 
  • दिल्ली सल्तनत एक इस्लामिक राज्य था, जिसके  अभिजात वर्ग एवं उच्चतर प्रशासनिक पदों  क्रम इस्लाम धर्म के थे। 
  • सैद्धांतिक रूप से दिल्ली सल्तनत के सुलतानों ने भारत में इस्लाम कानून लागु करने एवं अपने अधिकार पत्र के दारुल हर्ब को दारुल इस्लाम में परिवर्तित करने के प्रयास किये। 
  • सल्तनत काल के सभी शासक खलीफा के प्रति निष्ठावान थे, तथा स्वयं को खलीफा का प्रतिनिधि मान शासन करते थे (केवल अलाउद्दीन खिलजी और मुबारक शाह खिलजी को छोड़कर)।



जिन सुल्तानों ने राजत्व के सिद्धांत को अपने दृष्टि से व्याख्यायित किया और उसी पर अमल किया वे हैं:- 

            1) गयासुद्दीन बलबन, 

            2) अलाउद्दीन खिलजी और 

            3) मुबारकशाह खिलजी।



बलबन का राजत्व सिद्धांत:-

  • बलबन ने सुल्तान के पद को दैवीय कृपा का माना है।
  • बलबन का राजत्व का सिद्धांत निरंकुशता पर आधारित था।
  • बलबन ने शासक की दैवी उत्पत्ति को सिद्ध करने के लिए अपने दरबार में सिजदा और पैबोस की प्रथा आरम्भ की।
  • वह उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में भेद करता था।
  • वह गैर तुर्की को कभी उच्च पद पर नहीं रखता था।
  • बलबन ने ईरानी त्यौहार "नौरोज" मनाने की प्रथा शुरू की।




अलाउद्दीन का राजत्व सिद्धांत:-

  • अलाउद्दीन एक सुन्नी मुसलमान था, उसे इस्लाम में पूर्ण विश्वास था। 
  • उसने राजत्व के लिए दैवीय शक्तियों तथा सद्गुणों का दावा किया। 
  • वह राजा को देश के कानून से ऊपर मानता था। 
  • अपने शासनकाल में अलाउद्दीन ने पहले शमशीर (अभिजात वर्ग) तथा अहले कलम (उलेमा वर्ग) के प्रशासनिक प्रभाव को कम किया।
  • उसने शासक के पद को स्वेछाचारी तथा निरंकुश बनाया तथा स्वयं यामिन-उल-खिलाफत तथा नासिरी-अमीर-उल-मौमनीन की उपाधि धारण की। 
  • उसने अपने शासन की स्वीकृति के लिए खलीफा की मंजूरी को आवश्यक नहीं समझा। 



एक सच्चाई, जो बताई नहीं जाती

  

एक सच्चाई, जो बताई नहीं जाती



अकबर प्रतिवर्ष दिल्ली में नौरोज़ का मेला आयोजित करवाता था....!


इसमें पुरुषों का प्रवेश निषेध था....!


अकबर इस मेले में महिला की वेष-भूषा में जाता था और जो महिला उसे मंत्र मुग्ध कर देती....उसे दासियाँ छल कपट से अकबर के सम्मुख ले जाती थी....!


एक दिन नौरोज़ के मेले में महाराणा प्रताप सिंह की भतीजी, छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह की पुत्री मेले की सजावट देखने के लिए आई....!


जिनका नाम बाईसा किरणदेवी था....!

जिनका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज जी से हुआ था!


बाईसा किरणदेवी की सुंदरता को देखकर अकबर अपने आप पर क़ाबू नहीं रख पाया....और उसने बिना सोचे समझे दासियों के माध्यम से धोखे से ज़नाना महल में बुला लिया....!


जैसे ही अकबर ने बाईसा किरणदेवी को स्पर्श करने की कोशिश की....


किरणदेवी ने कमर से कटार निकाली और अकबर को ऩीचे पटक कर उसकी छाती पर पैर रखकर कटार गर्दन पर लगा दी....!

और कहा नींच....नराधम, तुझे पता नहीं मैं उन महाराणा प्रताप की भतीजी हूँ....

जिनके नाम से तेरी नींद उड़ जाती है....!


बोल तेरी आख़िरी इच्छा क्या है....?


अकबर का ख़ून सूख गया....!


कभी सोचा नहीं होगा कि सम्राट अकबर आज एक राजपूत बाईसा के चरणों में होगा....!


अकबर बोला: मुझसे पहचानने में भूल हो गई....मुझे माफ़ कर दो देवी....!


इस पर किरण देवी ने कहा: आज के बाद दिल्ली में नौरोज़ का मेला नहीं लगेगा....!


और किसी भी नारी को परेशान नहीं करेगा....!


अकबर ने हाथ जोड़कर कहा आज के बाद कभी मेला नहीं लगेगा....!


उस दिन के बाद कभी मेला नहीं लगा....!


इस घटना का वर्णन 

गिरधर आसिया द्वारा रचित सगत रासो में 632 पृष्ठ संख्या पर दिया गया है।


बीकानेर संग्रहालय में लगी एक पेटिंग में भी इस घटना को एक दोहे के माध्यम से बताया गया है!


 किरण सिंहणी सी चढ़ी

उर पर खींच कटार..!

भीख मांगता प्राण की

अकबर हाथ पसार....!!


अकबर की छाती पर पैर रखकर खड़ी वीर बाला किरन का चित्र आज भी जयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है।


इस तरह की‌ पोस्ट को शेअर जरूर करें और अपने महान धर्म की गौरवशाली वीरांगनाओं की कहानी को हर एक भारतीय को  जरूर सुनायें, जिससे वो हमारे गौरवशाली भारत के महान सपूत और वीरांगना को जान सकें, और उन पर अभिमान कर सके !

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Saturday, 27 November 2021

गुप्तकालीन सामाजिक स्थिति

  

गुप्तकालीन
सामाजिक स्थिति

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गुप्तकालीन-सामाजिक-स्थिति


गुप्त काल में ब्राह्मण और क्षत्रिय को संयुक्त रूप से द्विज कहा गया है।

गुप्तकालीन समाज परम्परागत 4 जातियों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में विभाजित था। 

पहले की तरह ब्राह्मणों को इस समय भी समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था।

गुप्त काल में इन वर्णों के अलावा अन्य जातियों का भी उल्लेख मिलता है जैसे मूर्ध्दावषिक्त, अम्बष्ठ, पारशव, उग्र एवं करण। 


अम्बष्ठ:- ब्राह्मण पुरुष एवं वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान अम्बष्ठ कहे गए। विष्णु पुराण में इन्हें नदी तट पर निवासी माना गया है मनु ने इन्हें का मुख्य व्यवसाय चिकित्सा बताया है। 

पारशव:- इस जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण पुरुष एवं शूद्र स्त्री से हुई। इन्हें निषाद भी कहा जाता है पुराणों में इनके विषय में जानकारी मिलती है 

उग्र:- गौतम के अनुसार वैश्य पुरुष एवं शुद्ध स्त्री से उत्पन्न जाति उग्र कहलाई। पर स्मृतियों का मानना है कि इस जाति की उत्पति क्षत्रीय पुरुष एवं शूद्र जाति की स्त्री से हुई हैं। इनका मुख्य कार्य था बिल के अंदर से जानवरों को बाहर निकाल कर जीवन यापन करना है। 

फाह्यान ने गुप्तकालीन समाज में अस्पृश्यत (अछूत) जाति के होने की बात कही है। स्मृतियोंओं में इन्हें अंतज्य कहा गया है। पाणिनी ने इनका उल्लेख निरवसित शुद्र के रूप में किया है। 

संभवतः इस जाति के उत्पति शूद्र पुरुष एवं ब्राह्मण स्त्री से हुई है। 

यह जाति बस्ती के बाहर निवास करते थी इनका मुख्य कार्य शिकार करना एवं श्मशान घाट की रखवाली करना था। 

गुप्त काल में लेखकीय, गणना, आय का हिसाब रखने वाले आदि कार्यो को करने वाले वर्ग को कायस्थ कहा गया है।


 

व्हेनसांग अनुसार:- 

क्षत्रिय राजा की जाति थी। 


फाह्यान के अनुसार:- 

फाह्यान ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था की खूब प्रशंसा की है और बताया कि यहाँ के लोग बहुत दयालु एवं धर्मनिष्ट प्रवृत्ति के हैं। 

गुप्तकालीन समाज में अस्पृश्यत (अछूत) जाति के होने की बात कही है। स्मृतियोंओं में इन्हें अंतज्य कहा गया है। पाणिनी ने इनका उल्लेख निरवसित शुद्र के रूप में किया है।



खान-पान:-

कुछ गुप्तकालीन ग्रंथों में ब्राह्मणों को निर्देशित किया गया कि वे शूद्रों द्वारा दिए गए अन्न को ग्रहण न करें। 

जबकि बृहस्पति ने संकट के क्षणों में ब्राह्मण द्वारा शूद्र एवं दासों से अन्न ग्रहण करने की आज्ञा दी है। 

फाह्यान के अनुसार :- जनता साधारणतः शाकाहारी हैं और मांस का सेवन केवल चाण्डाल करते हैं। 

व्यवसाय :-

गुप्त काल के पूर्व ब्राह्मणों के केवल छह कार्य अध्ययन, अध्यापन, पूजा-पाठ, यज्ञ कराना ,दान देना, और दान लेना माना जाता था।

लेकिन गुप्तकाल में ब्राह्मणों ने अन्य जातियों के व्यवसाय को अपनाना आरंभ कर दिया था। 

मृच्छकटिकम् के उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि चारुदत्त नामक ब्राह्मण वाणिज्य का कार्य करता था। उसे ब्राह्मण का आपधर्म कहा गया है। 

इसके अतिरिक्त कुछ ब्राह्मण राजवंश जैसे वकाटक एवं कदंब का उल्लेख मिलता है।  

ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ वैश्य शासक जैसे हर एवं सौराष्ट्र, अवंती, मालवा के शूद्र शासकों के विषय में भी जानकारी प्राप्त होती है। 

चंद्रगुप्त के इंदौर अभिलेख से कुछ क्षत्रियों द्वारा वैश्य का कार्य करने का उल्लेख है।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में तथा वराह मिहिर ने बृहद संहिता में चारों वर्णों के लिए अलग-अलग बस्तियों का विधान किया है। न्याय संहिता में यह उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की अग्नि, से वैश्य की जल से तथा शूद्र की विषय से की जानी चाहिए।

इस काल में शूद्रों द्वारा सैनिक वृत्ति अपनाने के प्रमाण मिलते हैं। 

याज्ञवल्क्य ने शूद्रों के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण अपनाते हुए इन्हें व्यापारी कारीगर एवं कृषक होने की अनुमति प्रदान की विवरण एवं 

नरसिंह पुराण के उल्लेख से यह संकेत मिलता है कि शूद्रों ने कृषि कार्य को अपना लिया था। 


गुप्त कालीन न्याय-व्यवस्था और सैन्य व्यवस्था

दास प्रथा का प्रचलन:-



गुप्त काल में दास प्रथा का भी प्रचलन था। नारद ने आठ प्रकार के दासों का उल्लेख किया है।  इनमें प्रमुख थे:- 

    1. प्राप्त किया हुआ दास (उपहार आदि से) 
    2. स्वामी द्वारा प्रदत्त
    3. ऋण का चुकता ना कर पाने के कारण बना दास 
    4. दांव पर लगाकर हारा हुआ दास (पासे आदि खेलों)
    5. स्वयं से दासत्व ग्रहण स्वीकार करने वाला दास 
    6. एक निश्चित समय के लिए अपने को दास बनाना 
    7. दासी के प्रेम जाल में फस कर बनने वाला दास 
    8. आत्म विक्रय (स्वयं को बेचकर) 


मनु ने सात प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। 

दासियों के बारे में भी जानकारी मिलती है।  

अमरकोश में दासीसमग्र का वर्णन आया है। 

इस समय दासों को उत्पादन कार्यों से अलग रखा गया, जबकि मौर्य के समय दास उत्पादन कार्य में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। 

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि दासो की स्थिति गुप्तों के समय ठीक नहीं थी। 


गुप्त कालीन व्यापार एवं वाणिज्य

स्त्रियों की स्थिति:-

गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति के विषय में इतिहासकार और रोमिला थापर ने लिखा है कि साहित्य और कला में तो नारी का आदर्श रूप लगता है पर व्यवहारिक दृष्टि से देखने पर समाज में उनका स्थान गौण था। 

पुरुष प्रधान समाज में पत्नी को व्यक्तिगत संपत्ति समझा जाता था। 

पति के मरने पर पत्नी को सती होने के लिए प्रेरित किया जाता था। 

उत्तर भारत की कुछ सैनिक जातियों के परिवारों को बड़े पैमाने पर सती होने की प्रथा का प्रचलन था। 

प्रथम सती होने का प्रमाण 510 ईसवी के भानुगुप्त के एरण अभिलेख से मिलता है, जिसमें किसी को गोपराज (सेनापति) की मृत्यु पर उसकी पत्नी के सती होने का उल्लेख है। 

गुप्त काल में कन्याओं का विवाह अल्पायु 13 या 14 वर्ष में कर दिया जाता था। 

गुप्त काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन केवल उच्च जातियों की स्त्रियों में था। 

गुप्तकालीन समाज में वैश्याओं के अस्तित्व के भी प्रमाण मिलते हैं पर इनके वृत्ति की निंदा की गई है। 

गुप्त काल में वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों को गणिका कहा जाता था। 

गुप्त काल में स्त्री धन का दायरा बढ़ा। कात्यायन ने स्त्री को अचल संपत्ति के स्वामी मारा है। 

गुप्त काल में पुत्र के अभाव में पुरुष की संपत्ति पर उसकी पत्नी का प्रथम अधिकार होता था।  

स्त्रियों के स्त्रीधन पर प्रथम अधिकार उनकी पुत्रियों का होता था।  

इस समय उच्च वर्ग की कुछ स्त्रियों के विदुषी एवं कलाकार होने का उल्लेख मिलता है। 

अभिज्ञान शाकुंतलम में अनुसूया को इतिहास का ज्ञाता बताया गया है। 

मालती माधव में मालती को चित्रकला में निपुण बताया गया है। 

अमरकोश में स्त्री शिक्षा के लिए आचार्यी, उपाध्यायीय, उपाध्याय शब्दों का प्रयोग किया गया है।

गुप्त काल के सिक्कों पर स्त्रियों जैसे कुमार देवी तथा लक्ष्मी के चित्र उच्च वर्ग के स्त्रियों के सम्मान सूचक है। 

पर्दा प्रथा का प्रचलन था, बाल विवाह एवं विवाह की प्रथा व्यापक हो गई थी। 

मेघदूत में उज्जैन के महाकाल मंदिर में कार्यरत देवदासियों का वर्णन मिलता है। 

मनु के अनुसार जिस स्त्री को पति ने छोड़ दिया हो या जो स्त्री विधवा हो गई हो यदि वह अपनी इच्छा से दूसरा विवाह करें तो वह पुनौर्भू तथा उसकी संतान को पुनौर्भव कहा जाता था। 


गुप्त कालीन राजस्व के स्त्रोत

गुप्तकालीन धार्मिक स्थिति

  

गुप्तकालीन धार्मिक स्थिति



गुप्तों का समय ब्राह्मण धर्म एवं हिंदू धर्म के पुनरुत्थान का समय माना जाता है। यह काल एक नया दर्शन लेकर उपास्थित हुआ। तत्कालीन महत्वपूर्ण संप्रदाय के रूप में वैष्णव एवं शैव संप्रदाय प्रचलन में आया। 

हिंदू धर्म में विकास यात्रा के इस चरण में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई देतें हैं, जैसे:- मूर्ति पूजा हिंदू धर्म का सामान्य लक्षण हो गया, यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया। 

गुप्त काल में ही वैष्णव एवं शैव धर्म के मध्य समन्वय स्थापित हुआ ईश्वर भक्ति को महत्व दिया गया। तत्कालीन महत्वपूर्ण संप्रदाय के रूप में वैष्णव एवं शैव संप्रदाय प्रचलन में थे। 

वैष्णव धर्म:-

वैष्णव धर्म गुप्त काल में अपने चरणों पर था तथा अवतारवाद वैष्णव धर्म का प्रधान अंग था। 

यह गुप्त शासकों का व्यक्तिगत धर्म था। अनेक गुप्त राजाओं ने परम भागवत की उपाधि धारण की। 

राजाओं ने अपनी राज आज्ञाएं गरुड़ध्वज से अंकित करवाई। 

चंद्रगुप्त द्वितीय एवं समुद्रगुप्त द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर विष्णु के वाहन गरुड़ की आकृति खुद ही मिली है।  

इसके अतिरिक्त वैष्णव धर्म के कुछ अन्य चिन्ह, जैसे:- शंख, चक्र, गदा, पद्म, लक्ष्मी का अंकन भी गुप्तकालीन सिक्कों पर मिलता है। 

समुद्रगुप्त के सिक्के

चन्द्रगुप्त-II के सिक्के









गुप्तकालीन महत्वपूर्ण अभिलेख स्कंदगुप्त का जूनागढ़ एवं बुधगुप्त का एरण अभिलेख स्तुति से प्रारंभ हुआ है। 

चक्रपाली का नाम के गुप्तकालीन कर्मचारी ने विष्णु के एक मंदिर का निर्माण करवाया था। 

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने विष्णुपद पर्वत के शिखर पर विष्णु ध्वज की स्थापना की। 

गुप्तकालीन कुछ अभिलेखों ने विष्णु को मधुसूदन कहा गया है। 


चन्द्रगुप्त-द्वितीय विक्रमादित्य से सम्बन्धित मत्वपूर्ण तथ्य

स्कंदगुप्त से सम्बन्धित मत्वपूर्ण तथ्य

Daily Current-Affairs

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शैव धर्म:- 

गुप्त राजाओं की धार्मिक सहिष्णुता की भावना के कारण ही शैव धर्म का विकास इस काल में हुआ। जबकि गुप्तों का व्यक्तिगत धर्म वैष्णव धर्म था। 

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का सेनापति वीरसेन प्रकांड शैव विद्वान था। उसने उदयगिरी पर्वत के अंदर शैवों के निवास के लिए गुफा का निर्माण करवाया था।  

गुप्त काल में भगवान शिव की मूर्तियां मानवी आकार एवं लिंग के रूप में बनाएं। शिव के अर्धनारेश्वर रूप की कल्पना एवं शिव तथा पार्वती की एक साथ मूर्तियों का निर्माण सर्वप्रथम इसी काल में हुआ। 

अर्धनारेश्वर 

अर्धनारेश्वर








शैव एवं वैष्णव धर्म के समन्वय को दर्शाने वाले भगवान हरिहर की मूर्तियों का निर्माण गुप्त काल में ही हुआ। 

हरिहर की मूर्ति

हरिहर की मूर्ति








त्रिमूर्ति पूजा के अंतर्गत इस समय ब्रह्मा विष्णु महेश की पूजा आरंभ हुए। 

गुप्तों के समय में मथुरा में महेश्वर नाम का शिव संप्रदाय निवास कर रहा था 

कालिदास के मेघदूत के वर्णन में उज्जयिनी में एक महाकाल के मंदिर का वर्णन है.

शैव धर्म का एक और अनुयाई पृथ्वीषेण जो कुमारगुप्त प्रथम का सेनापति था ने करमदण्डा नामक स्थान पर एक शिव की प्रतिमा स्थापित की। 

सामंत महाराज हस्तिन के खोह अभिलेख में नमो महादेव का उल्लेख है। 

वामन पुराण के वर्णन के अनुसार गुप्त काल में चार शैव संप्रदायों का वर्णन है: शैवपाशुपत, कापालिक, कालामुंख।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि गुप्त काल में वैष्णव धर्म के सामने शैव धर्म की अवहेलना नहीं की गई।

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कुमारगुप्त महेंद्रादित्य के विषय में मत्वपूर्ण जानकारी!!

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सूर्य पूजा:-

गुप्त काल में सूर्योपासक लोगों का भी संप्रदाय था। 

विक्रम संवत 529 के मंदसौर शिलालेख के प्रारंभिक कुछ श्लोकों में सूर्य भगवान की स्तुति की गई है। 

सूर्य देव


बुलंदशहर जिले के माडास्यात नामक स्थल पर सूर्य मंदिर होने के साक्ष्य मिले हैं। 

मिहिरकुल के ग्वालियर अभिलेख से मातृचेट नामक नागरिक द्वारा ग्वालियर के पर्वत श्रृंग पर एक प्रसिद्ध सूर्य मंदिर बनवाने के साक्ष्य मिले हैं। 



बौद्ध धर्म:- 

यद्यपि गुप्त शासकों ने इस धर्म को अपना संरक्षण प्रदान नहीं किया, फिर भी यह धर्म विकसित हुआ। 

इनके समय में बौद्ध धर्म के मुख्य केंद्र बन गया मथुरा, कौशांबी एवं सारनाथ। 

गुप्तों के समय में ही प्रसिद्ध बौद्ध विहार नालंदा की स्थापना की गई। 

नालंदा विहार


सांची के एक लेख के अनुसार चंद्रगुप्त द्वितीय ने किसी आम्रकद्रका नाम के बौद्ध धर्म के अनुयाई को अपने राज्य में ऊंचे पद पर नियुक्त किया था। 

गुप्तकाल के प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य वसुबंधु, असंग एवं दिंगनाथ थे। 

इन आचार्यों ने अपने विद्वता के द्वारा भारतीय ज्ञान के विकास में सहयोग दिया। 

चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार गुप्त काल में बौद्ध धर्म अपने स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहा था। 

बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अंतर्गत माध्यमिक एवं योगाचार संप्रदाय का विकास हुआ 

इसमें योगाचार संप्रदाय गुप्तों के समय काफी प्रचलित था। 

गुप्त काल में ही आर्यदेव ने चतुश्शतक एवं असंग ने महायान संग्रह, योगाचार भूमिशास्त्र तथा महायान सूत्रालंकार जैसे ग्रंथ की रचना की। 


गुप्तकालीन स्थापत्य कला!!

Daily Current-Affairs

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जैन धर्म:- 

गुप्त काल में जैन धर्म का भी विकास हुआ। 

गुप्तों के समय में ही मथुरा में (313 ई.) एवं वल्लभी में (553 ई.) में जैन सभा आयोजित की गई। 

इस समय मूर्तियों के निर्माण के अंतर्गत महावीर एवं अन्य तीर्थंकर की सीधी सीधी खड़ी हुई एवं पालकी मारकर बैठी हुई मूर्तियां निर्मित की गई। 

गुप्त काल में जैन धर्म मध्यमवर्गीय लोगों एवं व्यापारियों में खूब प्रचलित था। 

कदंब एवं गंग राजाओं ने इस धर्म को संरक्षण प्रदान किया। 

गुप्तों के समय जैन धर्म मगध से लेकर कलिंग, मथुरा, उदयगिरी, तमिलनाडु तक फैला था। 

षड्दर्शन:- 

सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व एवं उत्तर मीमांसा (वेदांत) की महत्वपूर्ण कृतियों की रचना गुप्त युग में ही हुई। 






गुप्तकालीन कला और स्थापत्य

 


गुप्तकालीन
कला और स्थापत्य


गुप्त काल में कला की विभिन्न विधाओं जैसे:- वास्तु, स्थापत्य, चित्रकला, मृदभांड-कला आदि में अभूतपूर्व प्रगति देखने को मिलती है। आगे हम विभिन्न उदाहरणों से इनको ही जानेंगे। 

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मंदिर:-

भारतीय स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन मंदिर थे। मंदिर निर्माण कला का जन्म यहीं से हुआ है।

इस समय के मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित किए जाते थे। चबूतरों पर चढ़ने के लिए चारों ओर से सीढियाँ बनाई जाती थी। 

देवताओं की मूर्ति को गर्भगृह में स्थापित किया जाता और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग का निर्माण किया गया जाता था। 

गुप्तकालीन मंदिरों में पार्श्वों (किनारों) पर गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियां बना बनी होती थी। 

गुप्तकालीन मंदिरों की छत्रें प्रायः सपाट बनाई जाती थी पर शिखर युक्त मंदिरों के निर्माण के अवशेष मिले हैं।  

गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी ईंटों एवं पत्थरों से बनाए जाते थे। भीतरगांव का मंदिर ईटों से ही निर्मित है। 

गुप्तकालीन मंदिर कला का सर्वोत्तम उदाहरण देवगढ़ का दशावतार मंदिर है। उस मंदिर में गुप्त स्थापत्य कला अपने पूर्ण विकसित रूप में दिखती है। 

देवगढ़ का
दशावतार मंदिर

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यह मंदिर सुंदर मूर्तियों से जड़ित हैं। इनमें झाँकती हुई आकृतियां, उड़ते हुए पशु-पक्षी, पवित्र वृक्ष, स्वास्तिक, फूल-पत्तियों की डिजाइन, प्रेमी युगल एवं बौनों की मूर्तियां निसंदेह मन को लुभाती हैं। 

इस मंदिर की विशेषता के रूप में इस में लगे 12 मीटर ऊंचे शिखर को शायद नजरअंदाज किया जा सके। 

संभवतः मंदिर निर्माण में शिखर का या पहला प्रयोग था। 

अन्य मंदिरों के एक मंडप की तुलना में दशावतार के इस मंदिर में 4 मंडलों का उपयोग हुआ है।



बौद्ध देव मंदिर:- 

यह मंदिर सांची तथा बोधगया में पाए जाते हैं। 

इसके अतिरिक्त दो बौद्ध स्तूप में एक सारनाथ का धमेख स्तूप जो ईंटो द्वारा निर्मित है जिसकी ऊंचाई 128 फीट के लगभग है। 

धमेख स्तूप


दूसरा राजगृह का जरासंघ की बैठक काफी महत्व रखते हैं। 

जरासंघ की बैठक


 

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मूर्तिकला:- 

गुप्तकालीन कला का सर्वोत्तम पक्ष उसकी मूर्तिकला है। 

इनकी अधिकांश मूर्तियां हिंदू देवी-देवताओं से संबंधित हैं। गुप्त कला के मूर्तियों में कुषाण कालीन नग्नता एवं कामुकता का पूर्णता लोप हो गया था। 

गुप्तकालीन मूर्तिकारों ने शारीरिक आकर्षण को छुपाने के लिए मूर्तियों में वस्त्रों के प्रयोग को आरंभ किया। 

गुप्तकालीन बुद्ध की मूर्तियों में सारनाथ की बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति, मथुरा में खड़े हुए बुद्ध की मूर्ति एवं सुल्तानगंज की कांसे की बुद्ध मूर्ति उल्लेखनीय है। इस मूर्तियों के में बुध की शांत चेतन मुद्रा को दिखाने का प्रयास किया गया है। 

सारनाथ


सुल्तानगंज


मथुरा


कूर्मवाहिनी यमुना तथा मकरवाहिनी गंगा की मूर्तियों का निर्माण किस काल में हुआ है। 

भगवान शिव के 1 मुखी एवं चतुर्मुखी शिवलिंग का निर्माण सर्वप्रथम गुप्त काल में ही हुआ। 

गुप्तकाल में शिव के अर्धनारीश्वर रूप की रचना भी हुई। 



विष्णु की प्रसिद्ध मूर्ति देवगढ़ के दशावतार मंदिर में स्थापित है। 


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वास्तुकला:- 

कानपुर के भीतरगांव, गाजीपुर के भीतरी और झांसी के देवरगढ़ के ईंटो से निर्मित मंदिर उल्लेखनीय हैं। 

भीतरगांव का मंदिर



मध्य प्रदेश के विदिशा स्थित उदयगिरी में पांचवी शताब्दी के प्रारंभ के गुप्त साम्राज्य की हिंदू कला को नाटकीय रूप में प्रदर्शन किया गया है। 

यहां भगवान विष्णु के वराह अवतार का स्मारक अर्थपूर्ण है जिसमें वह धरती मां को गहरे व प्रलयकारी जल से बचाते हैं। इसमें वराह भगवान की सूअर की आकृति, शक्ति व महिमा की एक समान भावना है। 


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चित्रकला:- 

गुप्त काल में चित्रकला उच्च शिखर पर पहुंच चुका था। 

कामसूत्र में 64 कलाओं के अंतर्गत चित्रकला की जानकारी भी संभ्रांतक व्यक्ति (नागरिक) के लिए आवश्यक बताई गई है। 

गुप्तकालीन क्षेत्रों में चित्रकला के उत्तम उदाहरण हमें महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित अजंता की गुफाओं तथा ग्वालियर के समीप स्थित बाग गुफाओं से प्राप्त होती हैं। 

अजंता की गुफाएं

अजंता के चित्र

अजंता के चित्र

अजंता की गुफाएं

अजंता की गुफाएं


अजंता में निर्मित कुल 29 गुफाओं में वर्तमान में केवल 6 ही गुफा (1,2, 9,10,16, 17) शेष हैं। 

गुफा संख्या 16 एवं 17 ही गुप्तकालीन है। अजंता के चित्रकरी तकनीकी दृष्टि से विश्व में प्रथम स्थान रखते हैं। 

इन गुफाओं के अनेक प्रकार के फूल पत्तियों वृक्षों एवं पशु आकृतियों से सजावट का काम तथा बुध एवं बोधिसत्व की प्रतिमाओं के चित्रण का काम जातक ग्रंथों से ली गई कहानियों का वर्णात्मक दृश्य के रूप में प्रयोग हुआ है। 

यह चित्र अधिकतर जातक कथाओं की है अजंता की चित्रकला की एक विशेषता यह भी है कि इन चित्रों में दृश्यों को अलग-अलग विन्यास से नहीं विभाजित किया गया है। 

चित्र बनाने से पूर्व दीवार को भलीभांति रगड़ कर साफ़ किया जाता था तथा फिर उसके ऊपर लेप चढ़ाया जाता था।  

अजंता की गुफा संख्या 16 में मरणासन्न राजकुमारी का चित्र प्रशंसा करते हुए ग्रिफिथ वर्ग एवं फर्गुसन ने कहा करुणा भाव एवं अपनी कथा को स्पष्ट ढंग से कहने की दृष्टि से यह चित्रकला के इतिहास में अनतिक्रमणीय है।  

वाकाटक वंश के शासक वराह मंत्री ने गुफा संख्या 16 को बौद्ध संघ को दान में दिया था। 

गुफा संख्या 17 के चित्र को चित्रशाला कहा गया है। इसका निर्माण हरिषेण नामक एक सामंत ने करवाया था। 

इस चित्रशाला में बुद्ध के जन्म जीवन महाभिनिष्क्रमण एवं महापरिनिर्वाण की घटनाओं से संबंधित रहे हैं.

 इस गुफा में बुद्ध के महापरिनिर्वाण की भव्य प्रतिमा चित्र जिसमें ऊपर की ओर अनेक देवी संगीतज्ञ तथा नीचे की ओर उनके दुखी अनुयाई का चित्र है। 

अजंता की गुफाएं बौद्ध धर्म की महायान शाखा से संबंधित थे


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बाघ की चित्रकला:- 

ग्वालियर के समीप बाघ नामक स्थान पर स्थित विंध्य पर्वत को काटकर बाघ की गुफाएं बनाई गई हैं 1818 ई. में डेंजरफील्ड ने इस गुफाओं को खोजा। बाघ गुफा के चित्रों का विषय मनुष्य के लौकिक जीवन से संबंधित हैं। यहां से प्राप्त संगीत एवं नृत्य के चित्र सर्वाधिक आकर्षक हैं। 

बाघ की गुफा 



साहित्य:- 

गुप्तकाल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण काल माना जाता है। 

बार्नेट के अनुसार प्राचीन भारत में के इतिहास में गुप्त काल का वह महत्व है जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लियन लोगों का। 

स्मिथ ने गुप्त काल की तुलना ब्रिटिश इतिहास के एलिजाबेथ तथा स्टुअर्ट के कालों से की है। 

गुप्त काल को श्रेष्ठ कवियों का काल माना जाता है। इस काल में कवि दो भागों में बांटे गए हैं :-

1) प्रथम भाग में वे कभी आते हैं जिन के विषय में हमें अभिलेखों से जानकारी मिलती है हालांकि इनकी किसी कृति के विषय में हमें जानकारी नहीं है। जैसे :- हरिषेण, शाव (वीरसेन), वत्सभट्टि एवं वासुल आते हैं। 


2) दूसरे भाग में वे कवि आते हैं जिनकी रचनाओं के बारे में हमें ज्ञान हैं जैसे:- कालिदास, भारवि, भट्टि, मातृगुप्त, भर्तृश्रेष्ठ, विष्णु शर्मा आदि। 


हरिषेण :- समुद्रगुप्त के लिए प्रयाग स्तंभ लेख की रचना की। लेख की शैली :- चंपू शैली (गद्यपद्य-मिश्रित) 


शाव (वीरसेन):- शाव की काव्य शैली के विषय में जानकारी का एकमात्र स्त्रोत उदयगिरी गुफा की दीवाल पर उत्कीर्ण लेख है। लेख के आधार पर यह माना जाता है कि शाव व्याकरण, न्याय एवं राजनीति का ज्ञाता एवं पाटलिपुत्र का निवासी था। 


वत्स भट्टी:- इनकी काव्य शैली के विषय में जानकारी मालव संवत के मंदसौर के स्तंभ लेख से मिलती है। 

इस लेख में कुल 44 श्लोक हैं, जिनमें पहले के तीन लोगों में सूर्य स्तुति की गई है। 


वासुल:- मंदसौर प्रशस्ति की रचना यशोवर्धन के समय में की। कुल 9 श्लोकों का यह काव्य श्रेष्ठ काव्य का अनोखा उदाहरण है। 


कालिदास:- कालिदास संस्कृत साहित्य के इस महान कवि की महत्वपूर्ण कृतियां हैं:- 

ऋतुसंहार, मेघदूतम, कुमारसंभवम् एवं रघुनाथ महाकाव्य। 

कालिदास की सर्वश्रेष्ठ कृति उनकी रचना नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् है। 

इनके अतिरिक्त उन्होंने मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोरवासियम नाटक की भी रचना की। 

भारवि:- इनके द्वारा रचित महाकाव्य किरातार्जुनीयम् महाभारत के पर्व पर आधारित है। इसमें कुल 18 सर्ग हैं। 


भट्टि:- इनके द्वारा रचित भक्ति काव्य को रावण वध भी कहा जाता है। रामायण की कथा पर आधारित इस काव्य में कुल 22 वर्ग एवं 1624 श्लोक हैं। 


मातृगुप्त:- इसके विषय में जानकारी कल्हण की राजतरंगिणी से मिलती है। इसने भरत के नाट्यशास्त्र पर टिका लिखी थी। 


विष्णु शर्मा:- इनके द्वारा रचित काव्य पंचतंत्र में विश्व की लगभग 50 भाषाओं में 250 भिन्न-भिन्न संस्करण निकल चुके हैं। पंचतंत्र की गणना संसार के सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ बाइबिल के बाद दूसरे स्थान पर की जाती है। सोलवीं सदी के अंत तक इस ग्रंथ का अनुवाद यूनानी, स्पेनिश, जर्मन एवं अंग्रेजी भाषा में किया जा चुका था। 

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Friday, 26 November 2021

दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाले वंश एवं उनके शासक व शासन काल

 

दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाले वंश एवं उनके शासक व शासन काल



वंश

शासक

शासन काल

गुलाम वंश

 

 

1)       कुतुबी वंश

कुतुबुद्दीन ऐबक (संस्थापक)

 

1206-1210

आराम शाह

1210-1211

2)       शम्सी वंश

इल्तुतमिश (संस्थापक)

1211-1236

 

 

रुक्नुद्दीन फिरोज 

1236

रजिया 

1236-1240

मुईजुद्दीन बहरामशाह 

1240-1242

अलाउद्दीन मसूदशाह 

1242-1246

नासिरुद्दीन महमूद

1246-1266

बलबनी वंश 

गयासुद्दीन बलबन (संस्थापक)

1266-1286

कैकुबाद एवं शम्सुद्दीन क्यूमर्स

1287-1290

खिलजी वंश

जलालुद्दीन फिरोज खिलजी (संस्थापक)

1290-1296

अलाउद्दीन खिलजी 

1296-1316

शिहाबुद्दीन उमर 

1316

कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी

1316-1320

तुगलक वंश

गयासुद्दीन तुगलक (संस्थापक)

1320-1325

मुहम्मद बिन तुगलक 

1325-1351

फिरोज शाह तुगलक 

1351-1388

गयासुद्दीन तुगलक द्वितीय (तुगलकशाह)

1388-1389

अबूबक्र 

1389-1390

नसीरुद्दीन मुहम्मदशाह 

1390-1394

अलाउद्दीन सिकन्दरशाह (हुमायूं)

1394

नसीरुद्दीन महमूद

1394-1412

सैयद वंश

खिज्र खां (संस्थापक)

1414-1421

मुबारकशाह 

1421-1434

मुहम्मदशाह

1434-1445

अलाउद्दीन आलमशाह

1445-1450

लोदी वंश

बहलोल लोदी (संस्थापक)

1451-1489

सिकन्दरशाह लोदी 

1489-1517

इब्राहिम लोदी

1517-1526

 


आर्यों के विजय होने के कारण

-:आर्यों के विजय होने के कारण:-   आर्यों के विजय होने के निम्नलिखित कारण रहा:-                      1)  घोड़े चालित रथ,                      ...